प्रथम विश्व युद्ध – युद्ध का आर्थिक तथा सामाजिक प्रभाव, पेरिस सन्धि-1919
प्रथम विश्व युद्ध – युद्ध का आर्थिक तथा सामाजिक प्रभाव, पेरिस सन्धि-1919 (The First World War-The Economic and Social impact of the War-The Peace of Paris-1919)
बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ का यूरोप बारूद के एक बड़े ढेर पर खड़ा था, जिसको आग लगाने के लिये केवल एक चिंगारी की आवश्यकता थी। पिछली अधशताब्दी से ही यूरोप की घटनाएँ इस तरह घटित हो रही थी कि अब अधिक समय तक शान्ति स्थापित नहीं रखी जा सकती थी । यूरोप के सभी देशों में अस्त्र-शस्त्रों की प्रतिस्पर्धा लगी हुई थी। मांस-प्रशा युद्ध, बर्लिन सम्मेलन, गारया का प्रश्न. त्रिराष्ट्र सन्धि का जन्म, रूस-जर्मन विवाद, इंग्लण्ड-जर्मन वक प्रतिस्पर्धा, पूर्व की समस्या, साम्राज्यवाद की भावना, मोरक्को संकट, लिया संकट, सेराजिवो हत्याकाण्ड आदि कुछ ऐसी अप्रिय घटनाएँ थी जो सम्पूर्ण का एक भयंकर आग की लपेट में ले गई। इस समय तक सम्पूर्ण पूरोप दो सशस्त्र गुटों में बँट चुका था: तथा
संयुक्त राष्ट्रों (Alied and Associated Powers) में इंग्लैण्ड, फांस,
(6) मित्र तथा संयुक्त राष्ट्र
रूस, सादिया, जापान दुखंगाल रसो, संयुक्त राज्य अमेरिका रूमानिया, यनाम स्याल, साइकोरिया, क्यूबा, पालासा, जाजोल, रवाशाला, निकारागुआ, कोस्टारिका आदि थे। (ज) केन्द्रीय शक्तियों (Cermal Pores) में जर्मनी, आस्ट्रिया-ड्रेशरी, बल्गेरिया और तुर्की ।
28 जून, 1914 को सेस्क रिस फडौ नेण्ड की हत्या से आस्ट्रिया तथा सादिया के मध्य जो युद्ध शुरू हुआ, यह औरे-धीरे विश्व युद्ध में बदल गया । इस युद्ध में संसार के लगभग सभी राहो से अधिकांश स्त्री-पुरुषों ने सैनिकों व सामान्य नागरिकों ने काले गोरे पुरे और पीले रंग की जातियों ने भाग लिया। सभी लोगों ने इस युद्ध में कुछ न कुछ इयत्न अवश्य किये । वास्तव में ऐसा घोर विनाशकारीदुर इतिहास में पहले कभी नही हुआ था।
महायुद्ध के बूलभूत कारण
1. राष्ट्रीयता की भावना-
कार को राज्य कान्ति के द्वारा राष्ट्रीयता की भावना का जन्म हुआ था, किन्तु इस राष्ट्रीयता का तेजी से विकास वियना कांग्रेस के पश्चात् ही संभव हुडा । इसी रोवता की भावना के फलस्वरूप इटली और जमनी का एकीकरण पूर्ण हुजाराष्ट्रवार ने एक ओर तो राष्ट्रों के निर्माण को प्रेरित किया परन्तु दूसरी ओर सरावाद के कारण पारसारिक मतभेद भी उत्पक हुए । 1871 ई० के बाद कार में उल्लेह-सारेन की माँग फ्रांस की राष्ट्रीय माँग हो गई । इटली के राष्ट्रवादियों द्वारा ट्रेन्टिलो, ट्रस्ट के प्रदेशों को प्राप्त करने के लिए समुद्धरणवादी (madertist) झोदोलन चलाया गया जिससे इटली और आस्ट्रिया के सम्बन्धों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। आस्ट्रिया-हंगरी का साम्राज्य तो स्वयं ही राष्ट्रीयता की भावना के लिए एक चुनौती था। पोल लोग, जिन पर विदेशियों का शासन था, यह चाहते थे कि उनका अपना राष्ट्र पुनः स्थापित कर दिया जाये।
सर्दिया जैसे बाल्कन देश यह चाहते थे कि इन साम्राज्यों में रहने वाले उनके साथी राष्टिक उनके साथ मिल जाए और बृहत्तर बाल्कन राष्ट्रों का निर्माण हो । रूस स्वयं को स्लाव लोगों का रक्षक समझता था और इस अखिल लाववाद का अखिल जर्मनबाद से तौब विरोध था। देशभक्ति की बढ़ती हुई विकृत भावना ने विभिन्न राष्ट्र के बीच पुणा और देश उत्तराज कर राष्ट्रवाद को रणोन्मादी बना दिया । राष्ट्रीयता को यह प्रवृत्ति मांग कर रही थी, कि एक राष्ट्रीयता एक राज्य के सिद्धान्त के अनुसार यूरोप के राजनीतिक मानचित्र का पुनःनिर्माण हो । इस प्रकार राष्ट्रीयता की भावना के कारण विश्व के देश एक-दूसरे से टकराने के लिए बाध्य थे। यही कारण है कि ओ.के ने राष्ट्रीयता की भावना को युद्ध के मूलभूत कारणों में प्रमुख माना है।
कूटनीतिक सन्धियों-
यद्यपि कूटनीति किसी भी युद्ध का कारण नहीं मानी जा सकती किन्तु उसके कारण युद्ध के अनुकूल परिस्थिति अवश्य उत्पन्न हो जाती प्रथम विश्व युद्ध के पूर्व भी कुछ ऐसी स्थिति उत्पन्न हो चुकी थी । बिस्मार्क की कटनीतिक सन्धियों के कारण एक ओर त्रिगुट का निर्माण हुआ तो दूसरी ओर आत्मरक्षा में त्रिराष्ट्र-मैत्री स्थापित हुई। इसने यूरोप को दो सशस्त्र विरोधी गुटों में विभक्त कर दिया था, जिनके सदस्य सन्धियों के जाल में इस प्रकार फंसे हुए थे कि यदि उनमें से कोई एक युद्ध छेड़ देता तो दूसरे अपने आप ही उसमें खिंचे चले आते। इसी कारण प्रो० फे ने लिखा है-“युद्ध का सबसे महत्त्वपूर्ण अन्तर्निहित कारण गुप्त सन्धियों की प्रणाली थी, जिसका विकास फ्रांस और प्रशा के युद्ध के बाद हुआ था । इसने धीरे-धीरे यूरोप की शक्तियों को ऐसे दो विरोधी गुटों में बाँट दिया, जिनमें एक दूसरे के प्रति सन्देह बढ़ता रहा और जो अपनी थल-सेना एवं नौ-सेना की शक्ति बढ़ाते रहे।”
बिस्मार्क के फ्रांस को पराजित करने के पश्चात् जर्मनी की सुरक्षा के लिए आस्ट्रिया तथा इटली से गुप्त-संधियाँ स्थापित कर त्रिगुट का निर्माण किया जिसके विरुद्ध फ्रांस ने भी अपनी सुरक्षा के लिए रूस तथा इंग्लैण्ड से मैत्री कर ट्रिपल अतान्त (Triple Entente) का गठन किया । अब यूरोप दो शक्तिशाली एवं परस्पर विरोधी गुटों में विभाजित हो गया था। ये सन्धियाँ मूल रूप से रक्षात्मक थी, फिर भी इनके कारण पारस्परिक प्रतिद्वन्द्रिता की भावना उत्पन्न हुई । फ्रांस ने इटली के साथ गुप्त सन्धि करके त्रिगुट को कमजोर बनाने का प्रयत्न किया तो जर्मनी ने इंग्लैण्ड और फ्रांस की मित्रता को तोड़ने तथा रूस के साथ गुप्त समझौता करने का प्रयत्न किया । प्रो० फे ने गुटबन्दी के विषय में लिखा है कि-“एक दृष्टिकोण से यह प्रणाली यूरोप में शान्ति बनाये रखने में सहायक थी, क्योंकि एक गुट के सदस्य, अपने साथी राज्य को युद्ध से बचाने के लिए अपने मित्रों को भी युद्ध से रोकते रहे, किन्तु दूसरी ओर इस प्रणाली के कारण यह भी निश्चित हो गया कि यदि युद्ध हुआ तो उसमें सभी बड़ी शक्तियों को सम्मिलित होना पड़ेगा।
आस्ट्रिया तथा इटली से गुप्त-संधियाँ
इस गुटबन्दी के कारण ही गुट के प्रत्येक सदस्य को ऐसी कार्यवाही करनी पड़ती थी, जिसमें उन्हें कोई लाभ नजर नहीं आ रहा हो, क्योंकि उन्हें अपने मित्र का समर्थन करना पड़ता था, जैसे जर्मनी की बाल्कन में कोई रुचि नहीं थी, किन्तु उसे अपने मित्र आस्ट्रिया के समर्थन में कार्यवाही करनी पड़ी, इसी तरह फ्रांस को रूस का मित्रता बनाए रखने के लिए उसकी बाल्कन नीति का समर्थन करना पड़ा। ब्रिटेन के विदेश मन्त्रालय के उच्चाधिकारियों को भी यह विश्वास हो गया था कि ट्रिपल एलाएस के विरुद्ध ट्रिपल अतान्त’ को सुदृढ़ बनाने के लिए इंग्लैण्ड को सआर फ्रांस का समर्थन करना चाहिये । इस प्रकार कूटनीतिक सन्धियों के कारण विश्वयुद्ध आवश्यक हो गया ।
3. सैल्यवान और शास्त्रीकरण-
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यूरोप में सैनिकवाद पनप रहा था । इसका मूल कारण उग्र राष्ट्रीयता, आर्थिक प्रतियोगिता तथा अन्तर्राष्ट्रीय तनाव था ।