बर्लिन की सन्धि का यूरोप के इतिहास में क्या प्रभाव पड़ा ?
बर्लिन की सन्धि का यूरोप के इतिहास में क्या प्रभाव पड़ा ?
बर्लिन की सन्धि का यूरोप के इतिहास में उसके परिणामों के कारण अधिक महत्त्व है | इस सन्धि के पश्चात् प्रथम विश्व युद्ध तक इसकी सन्धियों को तोड़ने या संशोधन करने की प्रक्रिया चलती रही और कई इतिहासकारों का यहाँ तक मानना है कि सन्धि में प्रथम विश्व युद्ध के बीज मौजूद थे।
बर्लिन की संधि के परिणाम –
बर्लिन कांग्रेस में रूस को पराजित होना पड़ा । केयरीन महान् के बाद उसको कभी भी इतनी अपमानजनक कूटनीतिक पराजय का आघात नहीं सहना पड़ा था 21 बर्लिन कांग्रेस के निर्णयों से ऐसा प्रतीत होने लगा मानों रूस ने ब्रिटेन और आस्ट्रिया के हित के लिए युद्ध किया था । यद्यपि बिस्मार्क ने बर्लिन कांग्रेस के समय घोषणा की थी कि वह निष्पक्ष-दलाल के रूप में कार्य करेगा, किन्तु उसने रूसी हितों की उपेक्षा करके आस्ट्रिया का पक्ष लिया। परिणास्वरूप रूस जमना स नाराज हो गया और रूस के जार ने इस समय पर कहा था कि “जर्मनी ने एक मित्र को प्राप्त करने के लिए दूसरा मित्र खो दिया है।” इसी सम्बन्ध में इतिहासकार गूच ने भी लिखा है कि उच्च राजनीति के क्षेत्र में बर्लिन कांग्रेस का मित्र को और रूस के का पक्ष लिया।
ब्रिटेन और आस्ट्रिया के हितकारी
विशिष्ट परिणाम यह था कि रूस, जर्मनी से विमुख हो गया ।” रूस के राजनीतिज्ञों की यह निश्चित धारणा थी कि जर्मनी ने बर्लिन कांग्रेस में आस्ट्रिया का समर्थन किया और रूस के हितों की अवहेलना की । सर्वस्लाववादी नेता अक्साकाफ ने बर्लिन कांग्रेस को रूस की जनता के विरुद्ध एक षड्यन्त्र के रूप में निरूपित किया ।
बर्लिन कांग्रेस का जर्मन राजनीति पर भी प्रभाव पड़ा | रूस के विरोध को देखकर बिस्मार्क को अत्यधिक चिन्ता हुई । एक ओर फ्रांस पहले से ही जर्मनी से नाराज था और अब रूस व फ्रांस मिलकर जर्मनी की सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर सकते थे । अतः 1879 में बिस्मार्क ने आस्ट्रिया के साथ सन्धि करके जर्मनी की सुरक्षा को सुदृढ़ बनाने का प्रयास किया । इस सन्धि के पश्चात् यूरोप में गुटबन्दियों का तांता आरम्भ हुआ जिससे अन्तर्राष्ट्रीय तनाव और बढ़ गया ।
ब्रिटेन को कूटनीतिक विजय
ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री बीकन्सफील्ड ने बर्लिन से लौट कर बड़े गर्व से कहा था”मैं सम्मान सहित शान्ति (Peace with honour) लाया हूँ।” उसने यह भी कहा था कि “मैने तुर्की के साम्राज्य को सुदृढ़ आधार प्रदान किया है।” इसमें सन्देह नहीं कि बर्लिन में ब्रिटेन को कूटनीतिक विजय प्राप्त हुई थी। उसके कारण रूस को बासफोरस की ओर बढ़ने से रोक दिया किन्तु वह उसको मध्य एशिया और अफगानिस्तान की ओर बढ़ने से नहीं रोक सका।
बर्सिन समझौते का परिणाम
बर्सिन समझौते का एक परिणाम यह भी हुआ कि रूस अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अकेला पड़ गया था । अब उसे भी फ्रांस की तरह एक मित्र की आवश्यकता थी। अतः 1894 ई० में रूस और फ्रांस में समझौता हुआ जिसने यूरोप के कूटनीतिक क्षेत्र में क्रान्ति कर दी।
बर्लिन कांग्रेस के परिणामस्वरूप आस्ट्रिया और सर्बिया में वैमनस्यता बढ़ गयी थी । आस्ट्रिया को बोस्निया और हर्जगोविना के प्रदेश दिये जाने से सर्बिया नाराज था । परिणामस्वरूप यह झगड़ा प्रथम विश्व युद्ध के लिए उत्तरदायी सिद्ध हुआ।
बाल्कन राज्यों की गतिविधियाँ (1878 से 1912 तक) –
बर्लिन सम्मेलन द्वारा बाल्कन की समस्या का हल खोजने का प्रयास किया गया था, किन्तु बाल्कन राज्य उसके निर्णयों से पूर्णतः सन्तुष्ट नहीं थे। बर्लिन की सन्धि ने पूर्वी समस्या का स्थायी समाधान नहीं किया था; अतः बाल्कन के लोगों ने इस सन्धि के प्रति निराशा व्यक्त की। इस निराशा के परिणामस्वरूप सन्धि की शतों का शीघ्र ही उल्लघन होने लगा | इस सन्धि के पश्चात् जब ब्रिटिश प्रतिनिधि डिजरेली और लाई सेलिसबरी स्वदेश लौटे, तब उन्होंने कहा था कि हमने “ससम्मान शान्ति Feace with honour) प्राप्त की है। शायद डिजरेली के इस कथन का यह आभप्राय था कि पूर्व में इंग्लैण्ड के हितों की रक्षा हो गई है और रूस के साथ युद्ध बाल दिया गया है |
बाद की घटनाओं को देखते हुए यह संदेहास्पद है कि बर्लिन की सन्धि ने वास्तविक समस्या का सन्तोषजनक समाधान पा लिया था। सन्धि ने यूरोपीय तुर्की का आकार घटा दिया और कुछ लाख व्यक्तियों को आटोमा साम्राज्य से अलग कर दिया था । यह सब 1856 ई० की पेरिस की सन्धि की गारण्टी के बावजूद भी हुआ | इस सन्धि ने मेसीडोनिया के प्रान्त के उन निवासियों के लिए कुछ नहीं किया जिन्हें अपनी स्वतंत्रता प्राप्त करने के पूर्व दमन के एक और युग का सामना करना पड़ा | पूर्वी रुमेलिया और बलोरिया का पृथक्करण केवल 1885 ई० तक ही कायम रहा | इस वर्ष ये दोनों प्रांत एक हो गए।स किसी भी कीमत पर भूमध्यसागर तक बढ़ना चाहता था |
रुमेलिया और बलोरिया का पृथक्करण
बर्लिन की सन्धि ने उसकी इस आकांक्षा पर रोक लगा दी । लेकिन रूस ने अपने प्रयत्नों को छोड़ा नहीं। उसने केवल अपनी दिशा बदल दी | 1878 ई० के पश्चात् रूस ने एशिया के सुदूरपूर्व में, मंचूरिया और दक्षिण में ईरान तथा अफगानिस्तान में अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश की। मार्मेनिया की समस्या – आर्मीनियन लोग काले सागर और कैस्पियन सागर के बीच के भू-भाग मुख्यतः एशिया माइनर के उत्तर-पूर्वी प्रान्तों में रहते थे। ये लोग ईसाई थे और कृषि कार्य करते थे |
बर्लिन सन्धि के अनुसार तुर्की के सुल्तान ने आर्मेनिया में सुधार करने एवं यहाँ की ईसाई प्रजा की रक्षा करने का वचन दिया था किन्तु 1894 और 1896 ई० के बीच एशिया माइनर में आर्मेनियन लोगों पर तुर्की के सुल्तान के अत्याचार बढ़ गये थे । इंग्लैण्ड की सरकार ने कई बार तुर्की के सुल्तान से सुधार का वचन पूरा करने का आग्रह भी किया था, किन्तु उसने कुछ नहीं किया ।
बिस्मार्क ने 1883 ई० में लिखा था कि- “बर्लिन की सन्धि की, आर्मीनिया में सुधार सम्बन्धी धाराएँ केवल आदर्शवादी एवं सैद्धान्तिक कल्पनाएँ है। व्यावहारिक दृष्टि से उनका महत्त्व अत्यन्त संदिग्ध है ।” वास्तव में तुर्की का सुल्तान सुधार नहीं करना चाहता था और उसको यह भी विश्वास था कि यूरोपीय शक्तियाँ अपनी आपसी फूट के कारण उसके विरुद्ध कोई कदम नहीं उठा सकेंगी। दूसरी ओर आर्मीनियावासियों में राष्ट्रीयता की भावना प्रबल होती जा रही थी। 1890 ई० में आर्मीनियन क्रान्तिकारी संघ का गठन हुआ । यह संघ तुर्की के साम्राज्य में हिंसात्मक कार्य करने लगा | इनकी क्रान्तिकारी गतिविधियों को देखकर सुल्तान ने अधिक कठोर नीति अपनायी ।